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“शब्द ज़िंदा रहेंगे, लेकिन सवाल मर चुके हैं” -मनोहर चावला

शब्द ज़िंदा रहेंगे, लेकिन सवाल मर चुके हैं” -मनोहर चावला

बीकानेर – सामाजिक सरोकारों, सरकारी तंत्र की खामियों और आमजन की पीड़ा पर वर्षों से कलम चलाने वाले वरिष्ठ पत्रकार मनोहर चावला ने अपनी लेखनी के ज़रिए एक मार्मिक आत्ममंथन प्रस्तुत किया है।

उन्होंने लिखा है कि एक समय था जब आलोचना को सुधार का माध्यम समझा जाता था। पूर्व मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया और भैरोंसिंह शेखावत जैसे नेताओं ने आलोचना का स्वागत किया। मगर आज के दौर में पत्रकार द्वारा सवाल उठाना, प्रशासनिक कमियों की ओर इशारा करना ‘नाराजगी’ और ‘प्रतिशोध’ को आमंत्रण देना बन गया है।

चावला का कहना है कि सड़कें खराब हैं, कानून व्यवस्था चरमराई हुई है, पुलिस जनता की सुरक्षा की बजाय चालान में व्यस्त है – लेकिन कोई कुछ नहीं कह सकता। बोलने और लिखने से अफसर, नेता, यहाँ तक कि समाज भी नाराज़ हो जाते हैं।

उन्होंने कहा कि अब वे भी कलम थामते वक्त हिचकते हैं, क्योंकि हर ओर ‘नाराज़’ होने वालों का डर है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, पत्रकार, खुद को असहाय महसूस कर रहा है, और आम नागरिक मौन की चादर ओढ़े हुए है।

लेख में स्पष्ट किया गया है कि अब शहर की हालत पर सवाल करने का साहस खत्म हो गया है, क्योंकि जनता भी अब सिर्फ स्वाद और सम्मान समारोहों में व्यस्त है – मूलभूत समस्याएं पीछे छूट गई हैं।

लेख के अंत में चावला ने अपनी लेखनी की ताक़त पर फिर भी भरोसा जताया है — कि वे भले न रहें, पर उनके शब्द ज़िंदा रहेंगे, और शायद कभी इस शहर को जगाने में यक्ष कामयाब हो जाएं।

यह लेख खबर से ज़्यादा एक जमीर की चीख है।
यह एक गहरी, मार्मिक और कटु सच्चाई से भरा सामाजिक टिप्पणी है, जो तथाकथित “लोकतंत्र” में आम नागरिक और पत्रकार की दयनीय स्थिति को उजागर करता है। इसमें एक सच बोलने वाले, सिस्टम से सवाल करने वाले, ज़मीर की आवाज़ उठाने वाले पत्रकार की बेबसी झलकती है—जो अब थक चुका है, टूट चुका है, और लगभग हार मान चुका है… लेकिन पूरी तरह नहीं।

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