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मरु प्रदेश में लगने वाले मेले अपनी पुरातन संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों को अपने आंचल में सुनहरे पलों के साथ समेटे हुए हैं

मरु प्रदेश में लगने वाले मेले अपनी पुरातन संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों को अपने आंचल में सुनहरे पलों के साथ समेटे हुए हैं

मरु प्रदेश में भादवा महिने के महत्वपूर्ण मेले
मेले महज मनोरंजन के माध्यम ही नहीं होते हैं अपितु आंचलिक परिवेश को प्रतिबिंबित भी करते हैं। ग्रामीण संस्कृति विशुद्ध रूप से भारत की अनुपम धरोहर है। विश्व के महान प्रकृतिवादी दार्शनिक “जीन जैंक रुसो” ने साफ शब्दों में कहा है “शहर मानव सभ्यता के कब्रिस्तान हैं।” उक्त कथन से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण अंचल में आयोजित मेले न केवल पारिवारिक आवश्यकताओं की आपूर्ति करते हैं वरन स्थानीय कामगार, यायावरी लघु एवं मौसमी व्यापारियों की जीविका के वाहक होते हैं साथ ही लोक कलाओं के अजायबघर भी होते हैं।
वेश्वीकरण, भू-मंडली करण तथा प्रतिस्पर्धा के दौर में मेले भी आर्टिफिशियल रंगों में रंगते जा रहे हैं। मल्टीनेशनल कंपनियों तथा ऑनलाइन मार्केटिंग ने अवश्य ही मेलों की रंगत को धुंधला किया है इसके बावजूद मेले आज भी अपने बीजरस को समेटे हुए हैं। दिनभर के खेत-खलिहान तथा निजी कामों से थका-हारा काश्तकार व मजदूर भी मेले की उमंग में अपनी थकावट भूलकर नई अंगड़ाई लेता है। ये ही वो मेले हैं, जहां “कथा सम्राट” मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी *ईदगाह* का नायक बालमन हमीद तीन पैसों में लोहे का चिमटा खरीद कर, दुनिया भर की खुशियां खरीदने का वास्तविक भाव प्रकट करता है। मेलों में आयोजित खेलकूद प्रतियोगिताएं युवाओं के शारीरिक सौष्ठव को पुष्ट करती नज़र आती हैं तथा सुखद एवं सकारात्मक प्रतिस्पर्धा का निर्माण करती हैं। रक्तदान जैसे शिविरों का आयोजन तो “सोने पर सुहागा” जैसा है एवं मानवता के लिए संजीवनी होने के साथ-साथ आमजन में त्याग की भावना को मजबूत करते हैं।।

अपनी पुरातन संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों को अपने आंचल में सुनहरे पलों के साथ समेटे हुए हैं।

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